रवि विजयवर्गीय
अपनी आखं से अपनी आंख को नहीं देखा जा सकता-सुधासागर
टोंक। टोंक की धरती पर चल रहे मुनि पुंगव संत सुधासागर महाराज का चार्तुमास में अमृत वचनों के बखान से जिला मुख्यालय सरोबार है। सुधासागर के सुधापान से टोंक में चल रहे उनके प्रवचनों को सुनने के लिए जैन समाज तथा धर्मावलम्बियों की भीड़ संत मुनि पुंगव सुधासागर के प्रवचन सभा में उमड़ रही है।
प्रवचन सभा में सुधासागर ने कहा कि मैं किसी का नहीं हूँ और मेरा कोई नहीं है। यह उत्कृष्ठ भाव है। हम किसी भी नियम को निदौष पालन करने में सफल नही है। मुनि सुधासागर महाराज ने कहा कि भारत क्षेत्र में तीर्थकर अनुगामी अवधि ज्ञानी होते है, परन्तु वर्तमान साधु संत सभी पूर्णत: रिद्धीधारी हो इसमें संशय है। आत्मकल्याणी और पर कल्याणी में भेद हैं। आत्म कल्याणी पर कल्याण के भाव से प्रवचन करते है पर वे भाषा समिति का ध्यान रखकर ही प्रवचन करते है। परमानंद निश्छत उपयोग के लिए निवृति भाव आवश्यक हैं। आहार निहार व विहार का त्याग धर्म मार्ग में प्रवृति का मार्ग हैं। ये तीन त्याग करने का सामथ्र्य रखने वाला ही केवल्यज्ञान के पथ पर बढ़ सकता है। वहीं मोक्ष का मार्ग है। उन्होंने कहा कि मुनि गण के लिए तिल तुस मात्र का भी त्याग सप्तम गुण स्थान के लिए अपरिहार्य है। माँ के प्रति पुत्र का समर्पण ही सत्य का मार्ग है। क्योंकि माँ जो भी करेगी वह पुत्र के हक में ही करेगी। इसलिए जिन वाणी माँ व गुरु के प्रति समर्पित हो जाओं वे तुम्हारा कल्याण ही करेंगे। ठोकर लगाने के बाद बड़ो की बात का स्मरण करना पश्वाताप है पर पहले ध्यान रखेंगे तो ठोकर लगेगी ही नही। ज्ञानी दुर्घटना के पले व अज्ञानी दुर्घटना के बाद सोचता है। हम कितने ही बड़े हो जाए पर अपनी माँ व गुरु से बड़ा कभी कोई नहीं हो सकता। अपनी पसंद की वस्तु हमें दुख दे सकती है। पर माँ की अपने लिए पसंद की वस्तु कभी दुखदायी नहीं हो सकती। क्योंकि कोई भी माँ अपने पुत्र को अभक्ष गुटखा, सिगरेट या शराब के सेवन की सीख नहीं देती। गुरु के द्वारा शिष्य को दी गई वस्तु परिग्रह नहीं उपकरण कहलाती है। देखकर चलने के लिए पिच्छि कमण्डल उपहरण ही है। अंजन चोर गुरु के प्रति समर्पण भाव के कारण बिना पिच्छि कमण्डल के ही केवल ज्ञानी हो गया है। मौन रखना श्रेष्ठ है, बोलना नहीं। स्थिर रहना ठीक है, चलना नही। निराहार रहना ठीक है, पेट भरकर खाना ठीक नहीं है। मुनि के लिए कहा है मौन नहीं रहा जा सके तो हित, मित, प्रिय वचन बोलना सम्पयक रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए साधु साधना करता है और साधु की साधना मार्ग में स्वस्थ शरीर आवश्यक है तथा स्वस्थ शरीर के लिए आहारचर्या भी अपेक्षित है। इसलिए संयक रत्नत्रय की आराधना के लिए आहारचर्या को उचित बताया गया हैं। संत मुनि सुधासागर ने कहा कि क्रिया के लिए शक्ति चाहिए, पर श्रद्धा के लिए शक्ति आवश्यक नहंी है और बिना श्रद्धा के अभीष्ठ की प्राप्ति संभव नहीं है। जैन दर्शन का प्रवृति मार्ग यह है कि अपने पद से नीचे आकर नीचे वालों को अपने से ऊपर के पद तक पहुुंचाना। चोर को चोर नहीं कहने से वह साहूकार नहीं हो जाता। जिसको धोक दी जाती है, उसे धोका नहीं दिया जाता। आत्मा को जानने के दो तरिके है एक अपने ओर एक पर दो जानना। अनादि काल से ज्ञान परान्मुखी रहा हैं स्वान्मुखी नही रहा। अपनी आंख से अपनी आंख को को नही देखा जा सकता। यह है सृष्टि का नियम। पर के दोष व गुण देखने में कोई परेशानी नही होती दूसरों के दोष देखकर पापी कहना सरल है ओर गुण देखकर गुणी कहना भी सरल हैं। हम विनाश करने वाले को ज्यादा पहनानते है ओर उसकी बाते याद रखते है पर हमारे विकास करने वाले को न तो पहचानते है ओर उसकी बातें याद रख पातें हैं। बरसों पुराने दुश्मन को ओर उसके शब्दों को हम आज तक भूला नही पाते परन्तु हमारे कल्याण के लिए संत के प्रवचन को थोड़ी देर बाद ही भूल जाते हैं। प्रवचन की बाते अच्छी तो लगती है पर वे अक्षरश: याद नही रह पाती। भय महत्वपूर्ण है। सभा में एक आतंकवादी आ जाए तो हडकम्प मच जाएगा। उसकी धमकी से डर जाएगें उस समय संत का आश्वासन परक प्रवचन निरर्थक लगेगा। वह कभी भक्त के अहित की बात नही बोलता। हमारी श्रद्धाएं ऊपरी होने के कारण ही हम दु:खी रहते हैं। जब हमारी श्रद्धा भीतर से होगी तो हम सुख की अनुभूति करेगें संसारी व्यक्ति संसार के स्वरुप को जानता है इसलिए उसे उसी रुप में उपदेश देने की जरुरत हैं। जो देखने में अच्छी लगे वह छूने लगे जरुरी नही ओर जो छूने में अच्छी लगे जरुरी नही वह सूंघने में अच्छी ओर ओर जो खाने में अच्छी हों वह सपाच्य व गुणकारी हो जरुरी नही। स्वभाव भिन्नता प्रमुख है आदमी ठोकर खाकर ही सम्भलता हैं। पाप से घृणा करादों पुण्य स्वयं ही हो जाएगा। संसार की वस्तुओं को देखकर राग द्वेष का भाव जागता है। मित्र से राग नही ओर शत्रु से द्वेष नही का भाव ही उन्नत भाव है। राग-आग देह सदा। राग की आग जलाने वाली है इसलिए राग रहित जीवन का भाव बनाएं। संसारी प्राणी मन के वशीभूत है ओर मन स्थिर नही हैं। धन मूल्यवान है धर्म भी धन के बिना सम्भव नही हैं। जहां अभाव होता है वही भाव दिखाई देते है। आंख खरीदी नही जा सकती पर दर्पण खरीदा जा सकता है। भेंट दी हुई वस्तु पर स्वामित्व नही रह जाता दान दी हुई वस्तु के बदले कुछ भी अपेक्षा रखना दान का मान घटाना हैं। मंदिर तो जिनेन्द्र देव के होते है वे किसी जैनी, खण्डेलवाल या अग्रवाल का नही है। मंदिर के मूल नायक के नाम से ही मंदिर का नाम लिखा जावे। जैन ओर अजैन में मूल भेद यह है जैन तो भेंट चढाते है वे वापस नही लेते उसे निर्माल्य मानते है जबकि अजैन भोग के रुप में चढा के प्रसाद के रुप में वापस ग्रहण कर लेते हैं। किसी भी कार्य की शुरुआत एक अच्छे उद्देश्य के लिए की जाती है पर कालान्तर में वह उद्देश्य गोण हो जाता है कोई भी नियम व कानून एक अच्छे उद्देश्य के लिए बनते है पर धीरे- धीरे उस उददेश्य से भटकना शुरु हो जाता है यह मंगल उदगार मुनि सुधासागर महाराज ने अतिशय क्षेत्र जैन नसियां में आयोजित धर्मसभा में कहें। मुनि महाराज ने कहा कि मंदिर बनना चाहिए यह सब चाहते है उसका प्रयास करके मंदिर भी बना देते है पर मंदिर बन जाने के बाद उसके प्रति भाव घटने लग जाते हैं। यह उद्देश्य के प्रति भटकाउ ही तो हैं। धर्म ओर धर्मात्मा की शरण में जीने व मंत्र की आराधना करने से मन की निर्मलता बढती है व पुण्य का प्रसार होता है भगवान तो अंतर्यामी है वह आपके सुख व दुख दोनो को जानते है कर्म सिद्धान्त के आधार पर मन वचन व काय से की गई हिंसा ही है काय से की गई हिंसा देखी जा सकती है वचन से की गई हिंसा सुनी जा सकती हैं पर मन से की गई हिंसा न देखी जा सकती हैं न सुनी जा सकती है व्यक्ति सबसे ज्यादा पाप मन से करता है मन की तरंगे मार लो बस हो गया धर्म रावण ने कभी भी कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र को नही माना पर सब कुछ ठीक होते हुए भी मन में विकार के कारण उसे पानी माना गया। मुनि सुधासागर महाराज ने धर्मसभा में कहा कि सच्चा साधु तो पूर्ण ज्ञानी हो व सुख व दुख के क्षणों में समता भाव रखता है वैद्य व कवि आभार के भूखे होते हैं उन्हे प्रशंसा चाहिए। आत्मा अजर व अमर है शरीर नश्वर है अनिष्ट के संयोग व इष्ट के वियोग में भी जो समता भाव रखे वह सम्यक दृष्टि हैं। |
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